Wednesday 24 April 2013

ये खिड़की...

बहुत दिनों बाद खुली है यह खिड़की 
जिसके दरवाजे बंद थे ना जाने कब से 
इसके झरोखे से लगता है 
कब से बोझिल सी चुपचाप 
राह जोट रही थी ये,

आज एक सुकून मिला है इसको 
आज सुनायी दे रहीं हैं आवाजें 
इस खिड़की के पार से,

कहीं कुछ बच्चों की 
जो खेल रहे हैं छुपन छुपाई 
कहीं कुछ मंत्रों की 
जो गूँज रहे हैं मंदिर के आँगन में,

तो कहीं कुछ आवाजें हैं उस माँ की 
जो खिड़की के पास है खड़ी 
देख रही है बच्चों को अपने 
खिलखिलाते हुए चहचहाते हुए ,

और कुछ आवाजें हैं उन पंछियों की 
जो लौट रहे हैं अपने घरों को 
खुले आसमां में फड़फड़ाते हुए 
अपने परों को,

ये आवाजें रस घोल रही हैं कानों में 
आज गुमसुम है मगर 
मुस्कुरा रही है यह खिड़की !


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