आज एक ख्वाब जलाया मैंने,
वो ख्वाब जो बरसों से
वो ख्वाब जो बरसों से
कुछ कागज़ के पन्नों पर
न जाने कब से छुपा था,
धुंआ धुंआ हुआ वजूद उसका
बस कुछ राख के कतरों सा
मेरी आँखों के सामने पड़ा है,
पर मेरी इन खुश्क आँखों में
अश्क का इक कतरा भी नहीं,
पर वो ख्वाब...
सुलग रहा है उस राख के ढेर में,
जैसे कह रहा हो मुझसे
क्या यही था वजूद मेरा
जो तूने मिटा डाला,
अब न आऊंगा तेरी इन आँखों में
अब मैं इस राख का कतरा हूँ !
न जाने कब से छुपा था,
धुंआ धुंआ हुआ वजूद उसका
बस कुछ राख के कतरों सा
मेरी आँखों के सामने पड़ा है,
पर मेरी इन खुश्क आँखों में
अश्क का इक कतरा भी नहीं,
पर वो ख्वाब...
सुलग रहा है उस राख के ढेर में,
जैसे कह रहा हो मुझसे
क्या यही था वजूद मेरा
जो तूने मिटा डाला,
अब न आऊंगा तेरी इन आँखों में
अब मैं इस राख का कतरा हूँ !
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