रात के सन्नाटों में
दब गयीं चीखें सभी
सहमी सहमी सी खामोश
बस चुपचाप सी
एक सिरहन के साथ टूटी
टूट कर बिखरी रही
कौन सुनता आवाज़े सन्नाटों की
कौन था जो महसूस करता
वो खामोश चीखें
जो दिन रात बस
सुर्ख आँखों के रास्ते
निकलती रहीं
सुलगती रही अंगारों सी
पर सिसकी नहीं कहीं
दफ्न हो भी जाती
फिर भी...
तन्हा तन्हा सी
अपने ही अन्दर
सिसकती रही !
सहमी सहमी सी खामोश
बस चुपचाप सी
एक सिरहन के साथ टूटी
टूट कर बिखरी रही
कौन सुनता आवाज़े सन्नाटों की
कौन था जो महसूस करता
वो खामोश चीखें
जो दिन रात बस
सुर्ख आँखों के रास्ते
निकलती रहीं
सुलगती रही अंगारों सी
पर सिसकी नहीं कहीं
दफ्न हो भी जाती
फिर भी...
तन्हा तन्हा सी
अपने ही अन्दर
सिसकती रही !
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