Tuesday 5 May 2015

ख्वाबों की गठरी...

लम्हे भर को चली आयीं थीं खुशियाँ दिल में
सोचा था ये उम्र भर का सफ़र होगा
थामा था कस कर उन्हें गिरफ्त में अपनी
सोचा था अब ना उन्हें जाने दूंगी
जिन्दगी में फिर वीरानी छाने ना दूंगी 

लेकिन फिर भी छूट गया
वो खुशियों भरा लम्हा हाथों से मेरे
फिर वही सूनापन छोड़ गया
चला था जो हमराही बनकर
फिर सफ़र में साथ छोड़ गया 

अब इन ख्वाबों की गठरी
आँखों पर रखकर
भटक रही हूँ तन्हा तन्हा
उसकी तलाश में 

शायद वो मिल जाए कहीं तो
ये कुछ ख्वाब उसके नाम कर दूँ
इन आँखों का बोझ कुछ कम कर दूँ
तो शायद ...
इन्हें भी सुकून मिल जाए कुछ पल
इन्हें भी नींद आ जाए कुछ पल !

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