Thursday 6 September 2012

वो मोड़...

वो मोड़,

जिससे मुड़ते वक़्त तुमने
इक बार मुझे मुड़ कर नहीं देखा

आज भी गुजरता है वो मंज़र
मेरी आँखों के रास्ते से

आज भी रूह मेरी छटपटाती है
तेरा इक लम्स पाने को

आज भी धड़कनें मचल जाती हैं
सुनने को तेरी सदा

जानती हूँ मैं ये भी
गुज़रा वक़्त लौटता नही कभी

रेत की तरह जो फिसला है
मेरे हाथों से
अब न समेत पाऊँगी में उसे कभी

फिर भी ये आँखें नम हो जाती हैं
याद जब तेरी आती है

फिर जां पे बन आती है
याद जब तेरी आती है !

Wednesday 5 September 2012

कोई चुपचाप दबे पाँव आकर...

कोई चुपचाप दबे पाँव आकर
मेरे दिल की तरंगों से
 लिपट जाता है

और कभी देता है दस्तक
रूह को 
फिर साँसों से उलझ जाता है

दिल की जमीं पर
अपना सर रखकर
कुछ देर वो
आँखें मूँद कर सो जाता है

यादों को झंझोर कर सारी
फिर ख्यालों से होकर
गुज़र जाता है

उसके आने और जाने का सफ़र
चुपचाप मैं महसूस किया करती हूँ

वो फिर आएगा दबे पाँव
इस उम्मीद में
उसकी मुन्तजिर रहा करती हूँ !

Tuesday 4 September 2012

अब्र का इक कारवां..

बढ़ता चला आ रहा था
वो अब्र का इक कारवां
लहराती सर्द सबा के साथ
बह रहा था आँखों के आगे
खो रहे थे उसके निशां
कुछ देर में वो बह गया
दूर नीले गगन में अपने
चन्द निशां छोड़ गया
और तभी इक अब्र का टुकड़ा
मेरे पहलू में गिरा
वो मुझे भिगोने लगा
ख्वाबों को मेरे धोने लगा
वहम की जो गर्द थी
पर्त पर्त वो बहने लगी
सब कुछ उजला होने लगा
मेरा 'मैं' मुझमें खोने लगा
आँखों में फैली रौशनी
जैसे सवेरा हो गया !

तेरी वो मुरझाई सी आँखें...

तेरी वो मुरझाई सी आँखें
जो अब भी जिन्दगी को ढूंढा करती हैं
बेबस से तेरे वो लरजते होंठ
जो प्यासे हैं
जिन्दगी की मिठास पाने को

मुझे अफ़सोस है इसका
में कुछ भी तेरे लिए कर सकती नही
तेरी इन डबडबाई सी आँखों में
रौशनी की इक किरण भी भर सकती नहीं

रूह मेरी बस छटपटाकर रह जाती है
सांसें सुलगती हैं
आँखें बरस कर रह जाती हैं

क्यूँ ये इंसान ही इंसानियत के दुश्मन हैं
क्यूँ मसल देते हैं
इन नाज़ुक सी कलियों को
जो खुल के जीना चाहती हैं

यूँ तो जीती हैं ये इन काँटों के साथ उम्र भर
और फिर मुरझा जाती हैं
ख़त्म हो जाती हैं

फिर भी इनको कोई एहतराज़ नहीं
अपने वजूद से अपनी जिन्दगी से
ये तो आती ही हैं जहाँ में
अपनी खुशबू फैलाने के लिए !