छूता है हर लफ्ज़ तेरा
कभी फूल बनकर कभी खार
ले आता है होठों पर
कभी मुस्कान तो कभी
भर देता है अश्क आँखों में
खुद से उलझती रही बेवजह
मैं दीवानी सी होकर मगर
आज झांकती हूँ बीते पन्नों में तो
हर हर्फ़ नाराज़ हर पल नाखुश
ये किस वहम में गुज़र रही थी जिन्दगी
आज सोचूं तो बस अँधेरे ही नज़र आते हैं
सांस बोझल सी टूटती रही पर
टूटी नहीं अटकी अटकी सी
फंसती ही रही सदा
और इस वहम में जीते रहे
कि जिन्दा हैं हम ऐ जिन्दगी
तू भी हंसती होगी कहीं ना कहीं
देखकर हालत मेरी
किस तरह जिया है तुझको मैंने
बस हाथों से तू रेत बनकर
फिसलती ही रही !
कभी फूल बनकर कभी खार
ले आता है होठों पर
कभी मुस्कान तो कभी
भर देता है अश्क आँखों में
खुद से उलझती रही बेवजह
मैं दीवानी सी होकर मगर
आज झांकती हूँ बीते पन्नों में तो
हर हर्फ़ नाराज़ हर पल नाखुश
ये किस वहम में गुज़र रही थी जिन्दगी
आज सोचूं तो बस अँधेरे ही नज़र आते हैं
सांस बोझल सी टूटती रही पर
टूटी नहीं अटकी अटकी सी
फंसती ही रही सदा
और इस वहम में जीते रहे
कि जिन्दा हैं हम ऐ जिन्दगी
तू भी हंसती होगी कहीं ना कहीं
देखकर हालत मेरी
किस तरह जिया है तुझको मैंने
बस हाथों से तू रेत बनकर
फिसलती ही रही !
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