Wednesday 17 September 2014

एक प्यास है मयस्सर...

तुमसे क्या करूँ उम्मीद-ए-वफ़ा मैं 
हवा के झोंके की मानिन्द 
छू कर गुज़र जाओगे तुम,

ये तल्ख़ियाँ तो हैं मेरी जीस्त में शामिल 
मुझे मेरी बेचैनियों में 
और डुबा जाओगे तुम,

इक प्यास है मयस्सर 
जो बुझती नहीं कभी 
इक तलब है 
जो ख़त्म होती नहीं कभी,

ये बेताबियाँ जो उफान लेती रहती हैं दिल में 
इनकी तो आदत है मचल जाने की,

किस उम्मीद में साँसें लेती रहूँ मैं 
ज़िस्म-ओ-जान नाउम्मीद हो चुके हैं 
ना जाने कब से,

इक आग है जो जलाती रहती है रूह को 
इक साँस है जो टूट पाती नहीं,

ना घेरा डालो 
मेरे जहन की दीवारों पर यूँ 
इसकी तो आदत है 
ख़्वाब सजाने की !

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