Tuesday 4 September 2012

तेरी वो मुरझाई सी आँखें...

तेरी वो मुरझाई सी आँखें
जो अब भी जिन्दगी को ढूंढा करती हैं
बेबस से तेरे वो लरजते होंठ
जो प्यासे हैं
जिन्दगी की मिठास पाने को

मुझे अफ़सोस है इसका
में कुछ भी तेरे लिए कर सकती नही
तेरी इन डबडबाई सी आँखों में
रौशनी की इक किरण भी भर सकती नहीं

रूह मेरी बस छटपटाकर रह जाती है
सांसें सुलगती हैं
आँखें बरस कर रह जाती हैं

क्यूँ ये इंसान ही इंसानियत के दुश्मन हैं
क्यूँ मसल देते हैं
इन नाज़ुक सी कलियों को
जो खुल के जीना चाहती हैं

यूँ तो जीती हैं ये इन काँटों के साथ उम्र भर
और फिर मुरझा जाती हैं
ख़त्म हो जाती हैं

फिर भी इनको कोई एहतराज़ नहीं
अपने वजूद से अपनी जिन्दगी से
ये तो आती ही हैं जहाँ में
अपनी खुशबू फैलाने के लिए !

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