Tuesday 4 September 2012

अब्र का इक कारवां..

बढ़ता चला आ रहा था
वो अब्र का इक कारवां
लहराती सर्द सबा के साथ
बह रहा था आँखों के आगे
खो रहे थे उसके निशां
कुछ देर में वो बह गया
दूर नीले गगन में अपने
चन्द निशां छोड़ गया
और तभी इक अब्र का टुकड़ा
मेरे पहलू में गिरा
वो मुझे भिगोने लगा
ख्वाबों को मेरे धोने लगा
वहम की जो गर्द थी
पर्त पर्त वो बहने लगी
सब कुछ उजला होने लगा
मेरा 'मैं' मुझमें खोने लगा
आँखों में फैली रौशनी
जैसे सवेरा हो गया !

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