Thursday, 2 May 2013

तुम हाँ तुम...

तुम 
हाँ तुम ही तो हो 
जो मुस्कुराते हो मेरी आँखों में 
झिलमिलाते हो मेरी 
पलकों में,

तुम 
हाँ तुम ही तो हो 
जो कह जाते हो अनकही सी 
बातें कई 
यूँ  ही बातों बातों में,

तुम 
हाँ तुम ही तो हो 
जो छू जाते हो मुझे 
सबा की सूरत,

तुम 
हाँ तुम ही तो हो 
जो मिल जाते हो मुझे 
ख़्वाबों ख्यालों की राहों में 
कई गुमनाम सवालों में,

तुम 
हाँ तुम ही तो हो 
जो हो हर घड़ी शामिल 
मेरे जहन ओ दिल 
की तकरारों में,

तुम 
हाँ बस तुम ही हो 
मेरी धड़कनों की रफ्तारों में 
मेरी रूह की तासीर 
मेरे सुकून 
मेरे एहसासों में !



मेरे दिल-ए-नादाँ...


मेरे दिले नादां ...
ये तेरी कैसी तमन्ना है 
क्यूं तू इस कदर 
खुद पर जुल्मों सितम ढाता है,

 क्यूं पटकता है सर 
उन दरख्तों पर 
जिनकी दीवारें 
ना जाने कब से खामोश हो चुकीं हैं,

 नहीं है सुनवाई कोई 
तेरे इन बेकीमती जज्बातों की,

नहीं है मोल कोई 
तेरे इन अश्कों का 
जो बी बेसुध बेवजह 
ना जाने क्यूं बहते हैं,

तेरी दीवानगी का असर 
अब उस पर नहीं 
तू भी ये जिद्द छोड़ दे 
वक़्त के बहाव का मुख ना मोड़ 
अब ये दीवानगी छोड़ दे 
मेरे दिले नादां ...!

Monday, 29 April 2013

कुछ नहीं लिख पायी आज तुम्हारे लिए...

सुबह से हूँ इस सोच में 
लिखूं कुछ खास तुम्हारे लिए 
जो हो सिर्फ तुम्हारे लिए 
यूँ ही बीत गए सारे पहर,

पर सारे ख्याल अलसाये ही रहे 
कुछ नहीं लिख पायी आज तुम्हारे लिए 
धड़कनें भी सुस्त पड़ी हैं कब से 
एहसास भी गुदगुदाए नहीं आज,

शाम भी बोझिल बोझिल सी 
आयी और मुंह छिपा कर चली गयी 
और अब रात के इस पहर में 
बैठी थी चाँद के इंतज़ार में,

वो आएगा और कुछ नज़्म 
सुना जायेगा 
सुन कर उसे कुछ नज़्म 
मेरा दिल भी गुनगुनाएगा,

पर वो भी नहीं आया आज
पेड़ की टहनी के पीछे  
वो भी कहीं मुंह फुलाए 
बैठा है,

बीत गया ये पहर भी
कुछ भी नहीं लिख पायी  
आज तुम्हारे लिए ...



Saturday, 27 April 2013

वो ख्वाब...

आज एक ख्वाब जलाया मैंने,

वो ख्वाब जो बरसों से
कुछ कागज़ के पन्नों पर
न जाने कब से छुपा था,

धुंआ धुंआ हुआ वजूद उसका
बस कुछ राख के कतरों सा
मेरी आँखों के सामने पड़ा है,

पर मेरी इन खुश्क आँखों में
अश्क का इक कतरा भी नहीं,

पर वो ख्वाब...
 सुलग रहा है उस राख के ढेर में,

जैसे कह रहा हो मुझसे
क्या यही था वजूद मेरा
जो तूने मिटा डाला,

अब न आऊंगा तेरी इन आँखों में
अब मैं इस राख का कतरा हूँ !

Friday, 26 April 2013

नन्हीं सी चिड़िया...

मुंडेर पर बैठी नन्हीं सी चिड़िया 
फुदक रही है इधर से उधर 
ढूंढ रही है जाने क्या 
तकती है कभी इधर कभी उधर,

कल रात चली थी आँधी 
ओह टूट गया है घोंसला इसका 
बिखरे हुए सपनों को अपने 
चुन रही है कभी इधर कभी उधर,
 
किससे कहे किसे बताये 
अपना दुःख किसे सुनाये 
चुपचाप मुंडेर पर बैठी 
देख रही है नीला आसमां,

क्यूँ चली कल रात ये आँधी 
क्यूँ टूटा उसका आशियाँ 
कौंध रहे नन्हे मन में उसके 
ना जाने ऐसे कितने अनगिनत सवाल,

गुमसुम सी बैठी 
सोचती ही रही 
फिर उड़ गयी कहाँ 
नन्हीं सी चिड़िया !

खवाबों में चले आना...

ख्वाबों में चले आना 
यूँ मुझसे लिपट जाना 
पलकों के दरीचे से 
यूँ दिल में उतर आना,

महसूस करती रहूँ ताउम्र तुझको 
यूँ मेरे बिस्तर की 
सलवटों में सिमट जाना,

चुपचाप चले आना 
मुझमें सिमट जाना 
पलकों के दरीचे से 
यूँ दिल में उतर आना !

Wednesday, 24 April 2013

ये खिड़की...

बहुत दिनों बाद खुली है यह खिड़की 
जिसके दरवाजे बंद थे ना जाने कब से 
इसके झरोखे से लगता है 
कब से बोझिल सी चुपचाप 
राह जोट रही थी ये,

आज एक सुकून मिला है इसको 
आज सुनायी दे रहीं हैं आवाजें 
इस खिड़की के पार से,

कहीं कुछ बच्चों की 
जो खेल रहे हैं छुपन छुपाई 
कहीं कुछ मंत्रों की 
जो गूँज रहे हैं मंदिर के आँगन में,

तो कहीं कुछ आवाजें हैं उस माँ की 
जो खिड़की के पास है खड़ी 
देख रही है बच्चों को अपने 
खिलखिलाते हुए चहचहाते हुए ,

और कुछ आवाजें हैं उन पंछियों की 
जो लौट रहे हैं अपने घरों को 
खुले आसमां में फड़फड़ाते हुए 
अपने परों को,

ये आवाजें रस घोल रही हैं कानों में 
आज गुमसुम है मगर 
मुस्कुरा रही है यह खिड़की !