Sunday, 21 April 2013

बस तुझे ही चाहना चाहती हूँ...

ना जानूं ये क्या रब्त है तुमसे 
ना जानूँ ये कैसी हैं नजदीकियां 
ना जानूं क्या है इन्तिहाँ मेरे इश्क़ की 
ना जानूं ये कैसी हैं मदहोशियाँ,

बस तुझमें ही गुम हो जाना चाहती हूँ 
बस तुझे ही पाना चाहती हूँ 
तेरी पलकों को अपनी पलकों से छू कर 
तेरी साँसों में घुल जाना चाहती हूँ,

ना जानूं ये ख्वाब हैं मेरे या हकीकत 
ना जाने कभी ये सच होंगे भी या नहीं 
फिर भी हर ख्वाब सजाना चाहती हूँ 
तुझे हर पल बस चाहना चाहती हूँ,

तुझे अपनी बाहों में भर कर 
धड़कनें दिल की सुनना चाहती हूँ 
तुझमें ही गुम हो जाना चाहती हूँ 
बस तुझे ही चाहना चाहती हूँ !

जीते हैं वो भी...

बच्चे हैं बिलखते 
माँ भी नहीं सोती 
छुपछुप कर उनसे 
वो भी चुपचाप है रोती 
जीते हैं वो भी 
जिनके घर रोटी नहीं होती 
मासूम को अपने 
आँचल में छुपा कर 
होठों पर अपने 
नकली सी मुस्कान सजाकर 
लोरी में नये नये नगमें है पिरोती 
सुलाती है बच्चों को 
पर खुद नहीं सोती 
जीते हैं वो भी 
जिनके घर रोटी नहीं होती !

मासूम सा बचपन...

कांधे पर डाले बोझ वो जिन्दगी का 
तपती धूप में चलता
 मासूम सा बचपन  
बेचैन सी आँखों से 
देखता सभी को 
चुपचाप से बीनता टुकड़े प्लास्टिक के 
झोली में डालकर अपनी 
फिर आगे बढ़ जाता 
इधर उधर सभी से नज़रें चुराता 
चुप्चाप चलता जाता 
मासूम सा बचपन 
हँसते खिलखिलाते दूसरे बचपन को देख 
दिल ही दिल में मुरझाता 
टूटता जाता 
फिर भी 
दो जून रोटी के लिए 
चुपचाप से बीनता टुकड़े प्लास्टिक के
मासूम सा बचपन

कांधे पर डाले बोझ वो जिन्दगी का 
तपती धूप में चलता 
मासूम सा बचपन .

जाने क्या बात हुई...

आज जाने ये क्या बात हुई
यूँ लगा दिन में रात हुई
कोई दौर बदला
या बदली हैं फिजायें सभी
तुम्हें छू के आयीं हैं
सर्द सर्द हवाएं सभी
दिल में लहराता है
हर लम्हा मखमली
मुझे छू जाता है
ये एहसास...
तू संग है तू है यहीं कहीं
हर आहट पे रुक जाती हूँ
तुझे छूती हूँ पर
छू नहीं पाती हूँ
रुकते रुकते क़दमों से
 बढ़ जाती हूँ
हर लम्हा अश्क की बरसात हुई
पर ये क्या बात हुई
क्यूँ लगा दिन में रात हुई !

मुठ्ठी भर आकाश...


आँचल में समेत लूँ
वो मुट्ठी भर आकाश
तमन्नाओं के सागर सा
आशाओं के दर्पण सा
मुझमें कल कल करती
बहती उस नदी सा
अंधेरों को चीरता
रौशनी से ओत पोत
मुझमें ही कहीं
मुझको ही ढूंढता
संवेदनाओं को उजागर करता
आहटों को सुनता
 मेरे सपनों का संसार
आँचल में समेत लूँ
वो मुट्ठी भर आकाश !

सफ़ेद चादर सी जिंदगी...

सफ़ेद चादर सी जिन्दगी
एक दम कोरी
जिसको रंगना चाहा
हसीन लम्हों से
रंगीन सपनों से
नन्हीं नन्हीं लकीरें उकेरनी चाही
छोटे छोटे पलों से
नाज़ुक सी कलियों से सजाना था
खूबसूरत सी एक कलाकृति बनाना था
पर...
रंगीन सपनों के रंग धूमिल हो गए
चिंगारियां सुलगी
लम्हों में सुराग हो गए
नाज़ुक सी सभी कलियाँ मुरझायीं
जिन्दगी की चादर पर
कैसी ये कलाकृति बनायी !



यूँ फ़ना हो जाना चाहती हूँ...

खुद में ही गुम हो जाना चाहती हूँ
आज फिर कहीं खो जाना चाहती हूँ
आहटें भी ना सुनाई दें मेरी
यूँ फ़ना हो जाना चाहती हूँ

घुटता है खुद में ही दम मेरा
चुभता है मुझमें ही कुछ मेरा
थकनें लगीं हैं ये सांसें मेरी
अब चुपचाप सो जाना चाहती हूँ

कहाँ कहाँ से टूटा है
कतरा कतरा मेरी रूह का
धज्जी धज्जी बिखरा पड़ा
जज्बा मेरे जुनून का

ना दो अब सदाएं मुझे कोई
अब बस खामोश हो जाना चाहती हूँ
आहटें भी ना सुनाई दें मेरी
यूँ फ़ना हो जाना चाहती हूँ!