Sunday, 21 April 2013

जाने क्या बात हुई...

आज जाने ये क्या बात हुई
यूँ लगा दिन में रात हुई
कोई दौर बदला
या बदली हैं फिजायें सभी
तुम्हें छू के आयीं हैं
सर्द सर्द हवाएं सभी
दिल में लहराता है
हर लम्हा मखमली
मुझे छू जाता है
ये एहसास...
तू संग है तू है यहीं कहीं
हर आहट पे रुक जाती हूँ
तुझे छूती हूँ पर
छू नहीं पाती हूँ
रुकते रुकते क़दमों से
 बढ़ जाती हूँ
हर लम्हा अश्क की बरसात हुई
पर ये क्या बात हुई
क्यूँ लगा दिन में रात हुई !

मुठ्ठी भर आकाश...


आँचल में समेत लूँ
वो मुट्ठी भर आकाश
तमन्नाओं के सागर सा
आशाओं के दर्पण सा
मुझमें कल कल करती
बहती उस नदी सा
अंधेरों को चीरता
रौशनी से ओत पोत
मुझमें ही कहीं
मुझको ही ढूंढता
संवेदनाओं को उजागर करता
आहटों को सुनता
 मेरे सपनों का संसार
आँचल में समेत लूँ
वो मुट्ठी भर आकाश !

सफ़ेद चादर सी जिंदगी...

सफ़ेद चादर सी जिन्दगी
एक दम कोरी
जिसको रंगना चाहा
हसीन लम्हों से
रंगीन सपनों से
नन्हीं नन्हीं लकीरें उकेरनी चाही
छोटे छोटे पलों से
नाज़ुक सी कलियों से सजाना था
खूबसूरत सी एक कलाकृति बनाना था
पर...
रंगीन सपनों के रंग धूमिल हो गए
चिंगारियां सुलगी
लम्हों में सुराग हो गए
नाज़ुक सी सभी कलियाँ मुरझायीं
जिन्दगी की चादर पर
कैसी ये कलाकृति बनायी !



यूँ फ़ना हो जाना चाहती हूँ...

खुद में ही गुम हो जाना चाहती हूँ
आज फिर कहीं खो जाना चाहती हूँ
आहटें भी ना सुनाई दें मेरी
यूँ फ़ना हो जाना चाहती हूँ

घुटता है खुद में ही दम मेरा
चुभता है मुझमें ही कुछ मेरा
थकनें लगीं हैं ये सांसें मेरी
अब चुपचाप सो जाना चाहती हूँ

कहाँ कहाँ से टूटा है
कतरा कतरा मेरी रूह का
धज्जी धज्जी बिखरा पड़ा
जज्बा मेरे जुनून का

ना दो अब सदाएं मुझे कोई
अब बस खामोश हो जाना चाहती हूँ
आहटें भी ना सुनाई दें मेरी
यूँ फ़ना हो जाना चाहती हूँ!

रात के सन्नाटों में...


रात के सन्नाटों में
दब गयीं चीखें सभी

सहमी सहमी सी खामोश
बस चुपचाप सी
एक सिरहन के साथ टूटी
टूट कर बिखरी रही

कौन सुनता आवाज़े सन्नाटों की
कौन था जो महसूस करता
वो खामोश चीखें

जो दिन रात बस 
सुर्ख आँखों के रास्ते
निकलती रहीं

सुलगती रही अंगारों सी
पर सिसकी नहीं कहीं
दफ्न हो भी जाती
फिर भी...

तन्हा तन्हा सी
अपने ही अन्दर
सिसकती रही !


नन्हें नन्हें लफ्ज़...

सोच के दरवाज़े से झांकते हैं
नन्हे नन्हे लफ्ज़
कुछ सकुचाते कुछ इतराते
कुछ जिन्दगी को टटोलते
कुछ मासूम कुछ नटखट लफ्ज़
नन्हे नन्हे हाथों से थामते
उँगलियाँ मेरी
बहलाते कभी मन
कभी रूठ जाते ये लफ्ज़
दे जाते कभी उमंग जिन्दगी को
कभी मायूस कर जाते
ये लफ्ज़
सोच के दरवाज़े से झांकते हैं
 नन्हे नन्हे लफ्ज़ !


Sunday, 14 April 2013

तस्वीर हो गया...

तस्वीर बनाते बनाते खुद तस्वीर हो गया
वो शख्स मुझे कितना अजीज हो गया

आँखों में बंद था मोती बनकर
जाने कैसे मेरे आरिज़ पे ढलक गया

आज क्यूँ ये आँखें खाली खाली हैं
कौन सा मेहमां आज रुखसत हो गया

शरारत भरी बातों से देता था दिल पे दस्तक
मेरे दिल को वो कितना सूना कर गया

जिस्म में कोई हरकत होती नहीं जाने क्यूँ
रूह बनकर रह रहा था कोई
जाने कहाँ खो गया

खुद को देखती हूँ बड़े गौर से
सब कुछ ठीक ही लगता है

फिर ये कौन सा हिस्सा है
जो मुझमें कम हो गया !